Sunday, 9 April 2017

कविता (उम्र ढल गई )

उम्र का यह कैसा पड़ाव
इंद्रिया शिथिल ,शरीर कमजोर
अंग बेकार- नजर कुछ बाकी !
निगाहें शून्य हो चली है !!

याद लालटेन में बिताया बचपन
जवानी के किस्से सारे मुहजवानी
ढ़ाई पौन का पहाड़ा याद है!
सुनने वालों की गिनती शून्य हो गई!!

कपड़े, सामानों के भंडार भरें!
अलग अलग संग्रह जमा करलिये
बटन लगाना,खाना खा पाना
बिस्तर तक पहुचना,मुश्किल कामो मे!
पुरानी इच्छाये शून्य पड़ चुकी है!!

परिवार की कई पीढ़िया है
प्यार है,मेलजोल भी है!!
समय उन पर कम है!
मेरा शून्य में धुल रहा है।।

///----/////----/-/---------
अलका माथुर
10/4/2017

No comments:

Post a Comment