Saturday, 15 April 2017

कविता (बेसुध)


मश्हूर होने की धुन में
ज़िन्दगी निकल गई
खुद को दिखाने में
कुछ भी देखा ही नहीं!

आदत से जीते रहे
अनुसरण करते गए
कहीं नही मेरे पथचिन्ह
जिनके पीछे उनके निशा!

मंजिल कोई मुकाम नहीं
समय किसी का गुलाम नहीं
सफर भी एक कर्म है
रुकता उड़ता पंछी सा!

लालसा कुछ ख़ास की
आम रहने नहीं देती
भटकते ...राहों पे
सुध नहीं ..बेघर हो जाने की!!

-----------अलका माथुर
15 /4 /2017

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