Thursday, 27 October 2016

पचपन के पार (कविता)

चलो मौसम के संग,हम भी कुछ बदलते है !

नए काम,खानपान और नई नई आदत,
पुराने दोस्त और रिश्तो के संग पनपते है।

जो मन भाये वही हिम्मत जुटाते है,
दूसरों के दोष छोड़,अपना विवेचन करते हैं ।

न मिले पतवार,हाथो से ही सही,
नय्या खे कर,समंदर के पार उतरा करते है ।

उड़ना नही आये, सोच की उड़ानों में,
हवाओं के रुख,आसमानों की बातें करते है ।

क़ैद में भी हो,कोई गम नहीं,गिला नहीं,
सातों समुन्दर,तीनों लोकों की बात करते है।

अब भी बच्चों सी ज़िद, मन,इच्छाओं के संग,
कुछ बदलते भी है,चलो पच्चपन के पार  चलते है।

भय - आलोचना की काट है मन तेरा ,
सब भूलो,चलो खुद की प्रशंसा करते है ।

डर से कुछ नहीं हासिल,बदलने दो समय,
कुछ सबके संग ,कुछ अकेले ही चला करते है।।
-----------------------------अलका माथुर
26 .10 .

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